*कलयुगी कपूत या श्रवण कुमार*
उसकी मौत पर किसी को कोई दुख नहीं हुआ। वह कलयुगी बेटा था। अपने माता-पिता को कोसता, कटु वचन कहता और ये वचन मात्र कहने में कटु नहीं अपितु वास्तव में बहुत कड़वे होते थे। उसके वृद्ध माता-पिता बहुत बार उसकी इन बातों से आहत होकर रोते थे। अपने आप को धिक्कारते थे कि हमने क्यों ऐसी संतान को जन्म दिया? केवल माता-पिता ही नहीं गांव-गली, अड़ोस-पड़ोस के लोग, रिश्तेदार सभी तो उसे बुरा बताते। आज उसमें किसी को कोई अच्छाई नज़र नहीं आतीं, किन्तु क्या वो शुरू से ही ऐसा था?
विद्यालय-महाविद्यालय के दौरान वह पढ़ने में होशियार, सब का सम्मान करने वाला, अपने माता-पिता, भाई-बहन सबको प्यार करने वाला, अपने मित्रों का चहेता, सहपाठियों और गुरुजनों का प्रिय था। सभी उसके गुणों का गान करते थकते नहीं थे। सब कहते कि ऐसा गुणवान, ज्ञानी, नम्र, आज्ञाकारी, मेहनती लड़का आज के युग में होना असंभव-सी बात है। कहीं हमारी नज़र ना लग जाए। फिर इतना अच्छा लड़का कुछ ही वर्षों में इतना कैसे बदल गया? लगता है सच में शायद उसे नज़र लग गयी। आज वह तीस वर्ष का है। पर लोग उसे आज सपूत ना कहकर कलयुगी कपूत कहते है।
आज से एक वर्ष पहले उसे भयंकर सिर-दर्द, आंख-दर्द हुआ। अनेक डॉक्टरों से इलाज कराने पर भी ठीक नहीं हो रहा था। यहाँ सफलता ना पाकर एक दिन वह दिल्ली अपना उपचार करवाने गया और जब वापस आया तो चुपचाप रहने लगा।
दिल्ली से आने के बाद उसने घर वालों को बताया कि वह कुछ ही दिनों में एकदम ठीक हो जाएगा। घरवालों को उसने अपनी दवाइयां दिखाई, विश्वास दिलाया और निश्चिन्त कर दिया। परंतु वह स्वयं कुछ चिंतित-सा नज़र आता। पहले हँसता-खिलखिलाता हिमाश्र अब बुझा हुआ दीपक लगता था। कुछ दिन यूँ चुपचाप रहने के बाद हिमाश्र के स्वभाव-व्यवहार में एकदम से परिवर्तन दिखाई देने लगे।
अब वह अपने माता-पिता से सीधे मुंह बात नहीं करता। उनके कामों में सौ कमियाँ निकालता। कभी कहता उन्हें खाना खाना नहीं आता, खाना बनाना नहीं आता, ये नहीं आता, वो नहीं आता; मेरी तो इन लोगों ने ज़िंदगी ही खराब कर दी। ऐसे तरह-तरह के ताने सुनाता।
माता-पिता भी सोचते की संतान से ऐसी बातें सुनने से अच्छा धरती फट जाए और हम लोग उसमें समा जाए। हर बार वो अपने आप को संभाल लेते, समझा लेते। इस तरह कुछ ही दिनों में बूढ़े माँ-बाप को उसने परेशान कर दिया। उन बेचारे वृद्ध दंपती को तो कुछ भी समझ नहीं आता कि क्या करें? भगवान ऐसी संतान किसी को न दे। उनकी पांच संतानें थी। एक बड़ा लड़का, तीन लड़कियां सबकी शादी हो चुकी थी। अब वे हिमाश्र की शादी करके गंगा नहा लेना चाहते थे परंतु नियति में कुछ और ही बदा था।
मनुष्य हमेशा अपने सपने बुनता है। नयी उम्मीदें पालता है। लक्ष्य बनाता है और ऊपरवाला हमेशा मुस्कुरा रहा होता है क्योंकि वह मनुष्य के लिए कोई और योजना बनाए रखता है। बहुत बार वह भी जीत जाता है और काफी बार मनुष्य भी जीत जाता है और उसे अपने साहस से हरा ही देता है। हिमाश्र शायद इतना भाग्यशाली नहीं था। उसने स्वयं से हार मान ली थी।
हिमाश्र का यह बुरा बर्ताव ना केवल अपने माता-पिता के साथ बल्कि अपनी बहनों, अपने भाई-भाभी, अपने मित्रों, पड़ोसियों सबके साथ था। सबको उसने अपना दुश्मन बना लिया था, किन्तु वह सबसे अधिक परेशान अपने माता-पिता को ही करता था और विडंबना देखिए कि जिन माता-पिता को भगवान से भी बढ़कर चाहता था और हमेशा कहा करता था, "मैं श्रवण कुमार से भी बढ़कर अपने माता-पिता की सेवा करूंगा, पूजा करूंगा। भगवान राम भी लज्जा का अनुभव करेंगे मेरा सेवा-भाव, पितृ-भक्ति देखकर। अपने माता-पिता के पास कभी किसी चीज़ की कमी न रहने दूंगा" इतना सम्मान करने वाला हिमाश्र आज उन्हें दुत्कारता है।
इस तरह न जाने कितने ही दिनों तक लगातार ताने मारता रहा है हिमाश्र अपने निर्दोष माता-पिता को और माता-पिता भी चुपचाप सह लेते। भला हो भगवान तेरा, जो तूने माता-पिता बनाए, तू खुद अपने बच्चों को संभालने माता-पिता बन कर आ गया। दुनिया का कोई तराजू, कोई मशीन माप नहीं सकती माँ-बाप के प्यार को। इन धरती के सच्चे भगवानों में कहीं कोई खोट नहीं। इतने ताने सुनने के बाद भी उनके प्यार में कहीं रंचमात्र भी कमी नहीं आई।
अब हिमाश्र तीस साल का है। माफ कीजिए तीस साल का था, क्योंकि अभी कुछ दिनों पहले ही उसका देहाँत हो चुका है और कहते है कि मृत्यु सारे वैर-भाव भुला देती है। मरने के बाद हर कोई कहता है, लड़का तो अच्छा था, आदमी तो अच्छा था। गुण गाये जाते है। लेकिन यहाँ परिस्थितियां बदली नज़र आती थी। उसकी मौत पर कोई दुखी नहीं था। लोग बातें कर रहे थे।
एक ने कहा, "अरे, अच्छा हुआ मर गया। ऐसे बेटे से तो बिना बेटे के होना अच्छा है"
दूसरा बोला, "हाँ भाई, बड़ा कसाई था। इसने तो सारे मोहल्ले का जीना हराम कर रखा था। किसी का कोई काम न करता। बोलते ही खाने दौड़ता था। भगवान के घर देर है, अंधेर नहीं। न्याय किया भगवान ने"
तीसरा, "अरे, मोहल्ले की तो कोई बात नहीं, यह तो उन माता-पिता का ही नहीं हुआ जिन्होंने इसे जन्म दिया था। ये तो कोई पूत नहीं, कपूत था, कलयुगी कपूत। "
सब ने एक साथ हाँ में हाँ मिलाई, "कलयुगी कपूत"
हिमाश्र का देहाँत हुए काफी दिन हो गए थे। वृद्ध दंपती कोई त्योहार नहीं मना पाते थे। जवान बेटे की असमय मृत्यु का दुख वही जान सकता है, जिसमें बीती हो। इस बार औपचारिकतावश उन्होंने दीपावली मनाने की सोची, क्योंकि ये उसका पसंदीदा त्योहार था। दिवाली के नजदीक बेटे की याद भी बहुत आती थी। छोटा था तो कैसे हर त्योहार पर खुश होता था और दिवाली पर तो जैसे खुशियाँ सातवें आसमान पर होती थी। उछलता-कूदता फिरता, खुद भी खुश रहता और जहाँ जाता सिर्फ ख़ुशियाँ बांटता फिरता। दुनिया चाहे बुरा समझे, चाहे अच्छा समझे, पर यदि संतान माता-पिता को जान से भी मार दे तो भी वे उसे प्यार करना नहीं छोड़ते। उसकी अच्छी बातें याद रखते है। वे अपने बेटे को दोष नहीं देते। बल्कि सोचते कि ज़रूर कुछ गड़बड़ है। हमारा हिमाश्र ऐसा नहीं था। अपनी आंखों से देखा, अपने कानों से सुना, किन्तु उनका दिल नहीं मानता कि हमारा बेटा ऐसा है, ऐसा हो सकता है।
इस साल दिवाली पर वृद्ध दंपती घर की सफाई कर रहे थे और वही उन दोनों की लाशें पड़ी हुई मिलीं।
जब मैं वहाँ पहुंचा, उनको देखा तो दोनों मर चुके थे। सारा मोहल्ला एकत्र हो गया। उनके हाथ में एक बैग और एक डायरी थी। यह वही बैग था जिसमें हिमाश्र की उन जांचों की रिपोर्ट थी, जो उसने दिल्ली करवायी थी। साथ ही एक डायरी जिसमें कुछ लिखा था। पृष्ठ खुला था, "मैंने तेरा क्या बिगाड़ा था भगवान। कभी कोई भी ऐसा काम नहीं किया, जो अनैतिक हो, अनाचार हो। फिर मेरे साथ ही ऐसा क्यों? सिर्फ एक वर्ष है मेरे पास। इस एक वर्ष में क्या-क्या करूं मैं? मैं चाहे कितने भी सुख पहुंचा लूं अपने माता पिता को, किन्तु जब मैं मरूंगा तो क्या ये जी पाएंगे? मेरे भाई-बहन, मित्र सभी मुझे कितना प्यार करते है। इन सबका रो-रोकर बुरा हाल हो जायेगा। इन सबको तो फिर भी कोई संभाल लेगा किन्तु मेरे इन वृद्ध माता-पिता का क्या होगा? तू ही मुझे कोई ऐसा रास्ता दिखा कि मेरी मृत्यु का किसी को कोई दुख ना हो बल्कि उत्सव मनाया जाए। मेरी मृत्यु मेरे माता पिता के लिए दुख, विषाद, उदासी न लेकर आए, बल्कि उन्हें कहीं-ना-कहीं मुक्ति, स्वतंत्रता का एहसास हो। ऐसा क्या करूं मैं? अब इतना तो बता भगवान कम-से-कम। (तभी उसकी नज़र एक पुस्तक पर गयी, जिसके आवरण-पृष्ठ पर लिखा था, 'अत्याचारी, कटुभाषी और क्रोधी से कोई प्रेम नहीं करता' ) और उसे रास्ता मिल गया।
बहुत बार मनुष्य सही चीजें करने के लिए गलत रास्ता अख्तियार कर लेता है। वह भूल जाता है कि हमेशा गलत रास्ते के पास एक अच्छा रास्ता भी अवश्य होता है। वह भूल जाता है कि बुराई से अच्छी भलाई हमेशा से रही है। गलत रास्ते उसका जीवन तबाह कर देते है और उसके बाद उसके परिवारजनों का, उसके मित्रों का जीवन भी खराब कर देते है। ऐसे वक्त में भगवान हमेशा सही रास्ता दिखाता है, लेकिन उसी जगह गलत रास्ता भी होता है। हमें सही रास्ता चुनना चाहिए क्योंकि गलत रास्ता सबको कष्ट ही देता है।
"अब मैं भी ऐसा ही कुछ करूंगा और तू जानता है कि मरने से पहले सौ बार मरूंगा। मेरे प्राणों से भी प्यारे माता-पिता मैं आपको बहुत प्रेम करता हूँ। मेरे लिए ईश्वर से भी प्रिय आप हो। आपको कटु वचन कहते, आपको दुख देते समय मैं हज़ार मौत मरूंगा किन्तु फिर भी मैं यह करूँगा। अब मैं बनूंगा 'कलयुगी कपूत'। हिमाश्र की डायरी में लिखी ये आत्म-स्वीकृति पढ़ने के बाद मुझे भी उसमें राम और श्रवण के लक्षण साक्षात दिखने लगे।
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