केंद्रीय विद्यालय क्रमांक - ४,  भुवनेश्वर 
विद्यालय पत्रिका 
सत्र - २०१९-२०
हिंदी -विभाग 
                                                                                  जीवन का अंतिम दौर
तो क्या हुआ बूढ़ा हो गया हूं मैं ,
जवानी अभी तक बाकी है|
तुम्हारे बगैर ही,
चलना मुझ में जारी है |
यह सोचकर मैंने नहीं दिया था तुम्हें जन्म,
की तुम मेरा ख्याल रखोगे |
जवानी में तुम मेरा साथ दोगे ,
और बुढ़ापे में ऐसे ही छोड़ जाओगे|
बुढ़ापे को जो मैं,
खुशी से जीना चाहता हूं|
दर्द के सिवा और ,
कुछ नहीं रख पाता हूं |
चलता तो मैं रहता हूं ,
मगर वह खुशी नहीं पा पाता हूं |
वक्त गुजरता जाता है ,
मैं वह दर्द संभाल ना पाता हूं|
लाख दर्द दिए तुमने मुझे ,
खुशी-खुशी मैंने इसे सह लिया|
आखिरकार तुम्हारी ख्वाहिश पूरा कर दिया,
तुमसे जो मैं अलग चल दिया|
इतने बड़े हो गए हो तुम ,
असलियत को ना समझ पाया|
बुढ़ापे का सहारा बनने के बजाय,
अपने फोन से नाता बढ़ाया |
तुम भी मेरी स्थिति में आओगे ,
मुझे अच्छी तरह से समझ पाओगे |
मैं नहीं चाहता कि वह दर्द तुम्हें भी मिले, 
जो तुम मुझे देते जाओगे|
                       -जयश्री    पृष्टी
                            आठवीं ‘ब’ 
आज का ज़माना 
किसी की बात में क्यों अड़ाते हो टाँग, 
कृपया कर खत्म करो इसे, 
करती हूँ तुमसे यह माँग। 
किसी के आँसू की बनते हो तुम वजह, 
फैलाते हो बात को बड़ा बना के तुम जगह-जगह। 
क्या गुनाह किया है जो दे रहे हो इतना बडा दंड, 
न चाहते हुए भी बनते हो उनकी मृत्यु का कारण। 
क्या कसम खा रखी है कि देखोगे सदा उन्हें एक अलग ही नज़र से, 
मिला दिया है तुमने अपनी नज़र को ज़हर से। 
अगर तुम में नहीं आती सकारात्मकता वाली सोच, 
तो कोई हक नहीं तुम्हें नकारात्मकता से सकारात्मकता को देना मोच। 
तुम्हारे इस नाटक के बाद क्या सुनते हो तुम उनकी पुकार, 
नहीं,उस समय कोई नहीं होता देने उन्हें प्यार और दुलार। 
तुम्हारे इस कुचक्र के बाद दे दिया है तुमने उन्हें एक ऐसा श्राप, 
जैसे पीछे पड़ गया है रूढिवादित्व का एक ज़हरीला साँप। 
क्या तुम्हें पता है उनके कीमती बंधन की कीमत, 
पर तुम तो उसको थोडी सी भी नहीं देते अहमियत। 
पता नहीं क्या सोचकर रब ने दिया तुम्हें ये पत्थर दिल, 
नहीं हो भावना की कदर करने के काबिल। 
                                       प्रीतिश्री परिडा
                                       आठवीं ‘ब ‘
मुस्कान
मुस्कान! मुस्कान! मुस्कान!
क्या होती है ये मुस्कान?
जो किसी को हँसा दे,
जो किसी की दुःख हर ले,
जो किसी को हँसना सिखा दे
ये होती है मुस्कान!
मेरे लिए तो तू केवल
मेरी मुस्कान नहीं-
मेरा गर्व है,
मेरा अभिमान है,
तू तो मेरी ज़िंदगी का एहसास है,
जिसके बारे में सोचकर,
मुझे मिलता बड़ा सुकून है,
तु तो मेरी ज़िंदगी की एक ऐसी अनमोल चीज़ है,
जिसके बिना मेरी ज़िंदगी तो
बस बेकार है ।
तू जभी आती है मेरी मन में,
कुछ करिश्मा कर जाती है,
कि हर कोई बोलता,
वाह! वाह! वाह! 
बड़ी प्यारी है,
तेरी ये मुस्कान ।
                     -बिजयलक्ष्मी कर
                          आठवीं  ‘ब ‘ 
शहीद-ए-भगत
सरफरोशी का भाव तब
हमारे दिल में आया था,
लहू का प्रत्येक कतरा
इंकलाब लाया था, 
क्या हिन्दू, क्या मुस्लिम,
पूरा हिंदुस्तान उस दिन रोया था,
23 मार्च 1931 का दिन काल बनके आया था,
जब फांसी के फंदे पर
तीन वीरों को झुलाया था,
सुखदेव, भगत, राजगुरु के
मन को कोई दूजा न भाया था,
खुशी-खुशी वतन के वास्ते
मौत को गले लगाया था।
इंकलाब का नारा लिए
हमसे विदा लेने की ठानी थी,
लटक गए तुम फांसी पर परन्तु मुंह
से एक आह तक नहीं निकली थी,
देख ऐसी वीरता तुम्हारी
पूरा जग रोया था,
खुशी-खुशी वतन के वास्ते
मौत को गले लगाया था।
सीने में जुनून का राग था,
न मौत का कोई डर था,
न परवाह थी अपने प्राण की,
छोड़ मोह माया इस जग की 
अपनों को छोड़ के आया था,
भारत माता को गोद लिया था,
इस वतन को अपनाया था,
लेके जन्म इस पुनीत भूमि पर,
अपना फर्ज निभाया था,
खुशी-खुशी वतन के वास्ते
मौत को गले लगाया था।
अलविदा कहकर चल दिए,
दिखाकर सपना आज़ादी का,
सपना हुआ आपका सच
पर रोज़ दिखता है दृश्य बर्बादी का,
कहीं गरीब भूखा मरता है,
तो कहीं अमीरों का घर भरता है,
कहीं जात-पात का शोर होती है , 
तो कहीं नारी पर बरबरता बरस आती है,
यही अफसाना है आज़ाद भारत का,
जब जब ध्यान आया आपका
इन आंखों ने अश्रु बहाया था,
खुशी-खुशी वतन के वास्ते 
मौत को गले लगाया था।
टुकड़े टुकड़े कर गोरों ने
भारत मां का सीना चीरा था,
हिन्दू मुस्लिम के पंगो ने
भाईचारा को बहकाया था,
जातिवाद के इस खेल में
लड़ाई सबकी मजबूरी थी,
कुछ को हिंदुस्तान मिला तो
कुछ ने पाया पाकिस्तान था,
देखते ही देखते बंट गया ये समाज अपना
ऐसा तो नहीं देखा था आपने सपना,
सरहद के उस विभाजन का
आज असर कुछ गहरा दिखता है,
भारत-पाक की उन सीमाओं पर
हर रोज़ जवान मौत मरता है,
आपके सपनों पर ये भारत 
खरा न उतर  पाया था,
सलाम उन वीरों को जिन्होंने
खुशी-खुशी वतन के वास्ते
मौत को गले लगाया था।
जय भगत !
जय भारत !
इंकलाब ज़िंदाबाद !
- आयुष्मती शर्मा
- आठवीं ‘ब ‘
अंतर्मुखी 
अंतर्मुखी नाम सुन मन में कुछ अलग ही आती भावना।
 उन्हें देखकर तो लगता कि वो करते हैं बहुत साधना।
 उन्हें अच्छी लगती है बहुत खामोशी।
 और वही देती है उन्हें पूरी संतुष्टि ।
मन की बात अपनी किसी को भी नहीं बोलते।
 किसी डायरी पर वह लिखकर स्वयं को हैं खोलते।
 हमेशा यह विचारों की लहरों में तैरते।
 एकांत पाते ही विचार बहुत हैं करते।
 यह अंतर्मुखी तो  अलग ही दुनिया में खोये रहते ।
और उनकी बातें कोई भी सुनने को ना सोचते।
 अंदर से दुखी रह कर बाहर से हैं खुशी दिखाते।
 लेकिन यह भी कोई समझ ना पाते।
 चुनते हैं ये पूरे अच्छे से अच्छे दोस्त।
 फिर बिछड़ने की यह नहीं पाते बिल्कुल भी सोच।
 होते हैं यह बहुत ही रचनात्मक और विचारशील ।
मुझे भी कहते हैं कि 'वो' अंतर्मुखी और सहनशील।
 अपना दुख, अपना कष्ट किसी को भी नहीं बताते।
 जब देखो मन ही मन कुछ न कुछ रहते चबाते ।
बहुत से लोग इन्हें समझते हैं एक समस्या।
 लेकिन यह तो कर रहे होते हैं बड़ी ही तपस्या। 
यह भी हैं धरती की शान ।
सच में विधाता के अद्भुत वरदान।
 सच में विधाता के अद्भुत वरदान।।
                         -- इतिश्री परीडा
                               आठवीं  ‘ब ‘
तरीक़ा जीने का
शोभा आपके पहने कपड़े नहीं बढ़ाते।
बल्कि आपका दिखाया आचरण बढ़ाता है।।
दर्जा ऊंचा,किसी दफ़्तर के पोस्ट में न खोजो।
बल्कि किसी इंसान के दिल में चाहो।।
दया किसी मार खाते हुए बच्चे पर मत दिखाओ।
बल्कि सड़क पर मर रहे ग़रीबों पर दिखाओ।।
भक्ति किसी साधु संत की न करो।
बल्कि अपने निर्माणकर्ता भगवान की करो।।
विश्वास एग्रीमेंट करने वाले व्यक्ति पर न करो।
बल्कि उनका करो जो आपकी दिल से इज्ज़त करता हो।।
दान उनको मत करो जिनसे आपके रिश्ते अच्छे बनेंगे।
बल्कि उनको जिनके लिए दो वक्त की रोटी भी एक सपना समान हो।।
जीवन में लक्ष्य एक बड़ा आदमी बनने का मत रखो।
बल्कि एक सच्चा इंसान बनने का साधो।।
कभी वक्त मिले तो मेरी इन पंक्तियों को बस खाली पढ़ मत देना।
बल्कि इन पर ज़रा गौर फरमाना।।
                          —श्रेयांसी महापात्र
                            नवीं ‘ब’
दिल की दुआ
यह हँसते हुए 
दिल को तू बता 
हंसते-हंसते सारे आंसू  पी जाए ।
दुआ करो वह दर्द 
किसी के लिए बद्दुआ न बन जाए।
खुद ना खाए खाना गिरोह का पेट भर जाए ।
दुआ करो 
गरीब सारे खाने के लिए ना तरस जाए
मासूमों के हाथ प्यार के रंग में रंग जाए
 दुआ करो 
नफरत के लाल रंग ना चढ़ जाए।
नफरत और गुस्सा 
प्यार और दोस्ती के किरदारों को ना जला जाए।
 दुआ करो 
रिश्तो के एल्बम को जंग न लग जाए।
मौसम बदलने पर रिश्ते नहीं बदलते ।
दोस्ती निभाने वाले साथ नहीं छोड़ते ।
दुआ करो 
सच्चे यारों को उनकी यारी मिल जाए।
वह इंसान जो हमारी रक्षा करें 
उसके परिवार को रब सलामत रखे ।
बस यह दुआ करो 
समय के साथ उनकी इज़्ज़त और बढ़ती जाए।
लड़का- लड़की ,
ऊंचा -नीचा, 
काला हो या गोरा 
सबको एक नजर से देखा जाए ।
दुआ करो 
ईश्वर-अल्लाह-राम-मोला 
सब को एक नाम भाईचारा मिल जाए।
दुआ करो 
बस यही दुआ करो ।
 -शर्मिष्ठा शशिरेखा 
ग्यारहवीं ‘अ’
हो सके तो दे दो
बीते लम्हों को हो सके तो दे दो,
पुराने यारों को फिर एक बार मिलादो।
मेरा बचपन मुझे ला दो ,
माँ की गोद मैं मुझे लिटा दो ।
दुनिया पहले जैसी कर दो,
इंसान को इंसानियत याद दिला दो ।
बिछड़ों को फिर एक बार मिला दो,
और जी भरके प्यार करना सिखा दो।
समय को थोड़ा ठहरा दो... बचपन मिला दो ,
हो सके तो मुझे वही चैन की नींद फिर से सुला दो।
लक्ष्य मुझे मेरा भुला दो,
सपनों की दुनिया में मुझे खो जाने दो।
पढाई अभी थोड़ा रहने दो,
यादों की किताब ज़रा खोलने दो।
हो सके तो दे दो मुझे ये सब ...
हो सके तो ...
                   —प्रतिभा विशवाल
                     ग्यारहवीं ‘अ’
उड़ान मेरी 
चाहूँ उड़ना मैं
उम्मीद के पंखों से,
ऐसी उड़ान हो मेरी 
जो ना भरी हो किसी ने कभी भी  ।
राहों में कुछ भी हो खड़ा
पार करलूं उसे अपनी उड़ान से,
चाहे दोस्त मिले या दुश्मन ही
उसे भी ले चलूं साथ में ।
बढ़ती चलूं सपने लिए आंखों में
उन्हें सच करने की राहों में,
जानूँ मैं यह मुश्किल है,
पर न जाऊं तो सपने रह जाएंगे अधूरे।
सोच से परे होंगी मुसीबतें 
पर करूंगी जब उनका सामना,
तभी तो मानेंगे
मेरी उड़ान को पहचानेंगे।
वक़्त ऐसा भी आएगा
सौ के खिलाफ अकेले खड़ा होना पड़ जाएगा।
कभी मुश्किलों में साथ छूट जाएंगे,
कभी किसी अजनबी से सहारा मिल जाएगा ।
चाहे कुछ भी हो...
तोड़ना है इन बेड़ियों को
अपनी विस्तृत कल्पना से
आगे बढ़ाना है सोच को।
इस रुढ़ी समाज की कैद से 
मुझे आज़ाद होना है।
और उम्मीद के पंख फैलाए
मुझे उड़ जाना है।
-रचिता प्रहराज 
बारहवीं ‘ब ‘
तलाश अपनों की  
कहती है वो 
सहती है वो 
कैसे बताए 
अब ये न कह पाये 
जिया है उसने ज़िंदगी को जैसे 
है हिम्मत तो ज़रा जी के बताए वैसे 
जान गई है वो दुनिया की हकीकत को 
इतनी कम उम्र में 
कहती है वो 
सहती है वो 
कैसे बताए यूं जो ये प्यार उसे तड़पाये 
जान गयी है है न कोई किसी के लिए 
पर ना कर पायी कुछ इस नादान दिल का 
जो तो ढूँढे है प्यार आज भी माँ बाप का 
कैसे मनाए खुद को की है नहीं कोई यहाँ में 
उसका कोई अपना इस दुनिया में 
कहती है वो 
सहती है वो  
तड़पी है बरसों से खुशियों के लिए 
लगता है बैठा है कोई इंतज़ार किए 
दिखती है आज आस वो जो लगाए बैठी थी कई पहले बरसों 
लगता है हो रहा सच वो सपना 
इस दुनिया में हकीकत बन रहा है उसका आशियाना |
                                                 -गायत्री प्रियदर्शिनी नायक
                                             बारहवीं ‘अ’ 
ढ़ाई घंटे की नौकरी
(कहानी ) 
            वह एक कम पढ़े-लिखे, गरीब पिता की संतान था । 12वीं अच्छे अंको से पास कर ली थी। गर्मियों की छुट्टियां चल रही थी। उसने सोचा कि चलो कहीं थोड़ा बहुत काम धंधा करके कमा लिया जाए ।  पिताजी व घर की थोड़ी-सी सहायता हो जाएगी और कुछ सीखने को भी मिलेगा।
               पर क्या नौकरी मिलना इतना आसान है आज  ?
             उसके पिताजी ने काफी जगह पता किया, तब कहीं जाकर एक छोटी-सी नौकरी की बात बनी। उसे एक दुकान में काम करना था। दुकान में किराना के सामान के अतिरिक्त, दवाइयां भी थीं। साथ ही मालिक ने कोल्ड ड्रिंक्स की एजेंसी भी ले रखी थी। एक बड़ी-सी दुकान में छोटी-छोटी दो-तीन दुकानें थी ।
              बड़ी ही सिफारिश से मिली इस नौकरी के लिए आरित को सुबह आठ बजे वाली बस से प्रतिदिन पंद्रह किलोमीटर जाना और शाम को आठ बजे वाली बस से वापस आना था। पहला दिन , पहला दिन क्या..पहला घंटा.. पहला घंटा क्या...पहले ही मिनट में बताया गया कि भई दुकान में रखे डिब्बों पर कपड़ा मार दो ।  ना कोई परिचय, ना कोई बात, ना दुकान के कायदे-कानून ही समझाए गए और ना ही काम के घंटे व वेतन निर्धारित किया गया।
               आरित कपड़ा मारने लगा। अच्छे तरीके से डिब्बों की सफाई करने लगा। दुकान में अन्य तीन लड़के और भी काम करते थे और उन्होंने बताया कि हमने पहले ही कपड़ा मार दिया है। फिर भी मालिक ने कहा तो नौकर को काम तो करना ही पड़ेगा।
               आरित अपने काम में होशियार था । मेहनती था। ऊपर से पहली नौकरी का जोश । पांच ही मिनट में एकदम चमकाकर बैठ गया ।
              मालिक ने देखा।
             मालिक ने तुरंत नया काम बताया। कहा, "वह हथौड़ा लो और गुड़ की बड़ी डलियों को फोड़कर छोटा कर दो।" नयी नौकरी ।  जोश ।  कुछ ही मिनट । काम खत्म।
              मालिक अपने नौकर को बैठे हुए कैसे देखे  ?
              कोई भी मालिक अपने नौकर को बैठे हुए पैसे कैसे दे दे  ? नौकर को बैठे हुए देखकर मालिक ने अगला काम बताया, "काम खत्म हो गया तो बैठे क्यों हो  ? जाओ गोदाम में कोल्ड ड्रिंक्स की बोतलें रखवा आओ।" आरित गया ।  नयी नौकरी ।  जोश ।  कुछ मिनट। काम खत्म। आया। बैठ गया।
                मालिक परेशान ।
               यद्यपि दुकान के अन्य लड़कों ने बताया कि यहाँ हर काम तब तक करते रहो, जब तक मालिक ही न बुला ले। काम खत्म होने से मतलब नहीं, काम करते हुए दिखना चाहिए। पर आरित को अपना काम ईमानदारी से करने से मतलब था ।  उसने उन लड़कों से कहा, "ईमानदारी और मेहनत से अपना काम करना चाहिए।"
              मालिक आए और उन्होंने कहा," काफी दिनों से शोकेस के ऊपर पेंट चिपका हुआ है। इसे साफ कर। "
              आरित ने तुरंत सफाई शुरू कर दी। पर कपड़े व पानी से साफ नहीं हुआ तो मालिक ने एक नौकर को केरोसिन तेल लाने भेजा ।  केरोसिन तेल आने पर आरित साफ करने लगा लेकिन मालिक ने कपड़ा लिया और खुद ही साफ करने लगा। आरित हैरान। पर बाद में पता चला कि मालिक ने पूरा कपड़ा तेल में तर कर दिया ताकि लड़का साफ करते-करते तेल में सन जाए और हुआ भी वैसा ही। परंतु नई नौकरी । जोश ।  काम में फुर्ती और काम खत्म।
              हाथ धोकर बैठ गया आरित।
             मालिक अपने उन दो तीन दुकानों में से एक में गया नया काम देखने इतनी देर में एक औरत ने एक बिस्कुट का पैकेट तथा साबुन मांगा आरित ने दे दिए और पैसे गल्ले में रख दिए। मालिक आया। पूछा । पता चला । गुस्सा हुआ। कहा, "खबरदार जो आगे से किसी को भी सामान दिया और गल्ले को हाथ लगाया तो। "
            आरित बेचारा अचंभित और उदास भी।
             मालिक गुस्सा।
             तभी एक और ग्राहक आया। बोला,"मुझे दो पेप्सी के कार्टन चाहिए।"
          मालिक ने पैसे लिए और कहा, "आप जाइए मैं अभी भिजवाता हूँ (आरित की तरफ इशारा करते हुए) इसके हाथ।"
          ग्राहक ने कहा, "यहीं पास ही है। मैं साइकिल लाया हूँ। मैं ही ले जाता हूँ।"  
           मालिक ने आरित को धक्का-सा दिया कि जा रखवाकर आ। परंतु वह ग्राहक अपनी साइकिल पर रखकर चल पड़ा और कहा दो ही तो हैं। ले जाऊँगा।
             तभी एक अन्य दुकानदार का फोन आया। उसने चार कार्टन कोल्ड ड्रिंक्स के मंगवाए। मालिक ने आरित को भेजा साइकिल पर कार्टन रखकर। पहले कभी साइकिल पर या वैसे आरित कार्टन लेकर नहीं गया था। बड़ा परेशान हुआ। पर पहुंचा दिया। मालिक ने फोन करके अगले दुकानदार को इसी लड़के के हाथों तीन खाली कार्टन लाने को भी कहा ।  आरित वापस कार्टन लेकर आया । आकर बैठ गया। मालिक फिर परेशान।
             मालिक ने उसे अपनी दवाइयों की दुकान में कुछ सामान ऊपर चढ़ाने के लिए कहा । लड़का जोश में। पहली नौकरी। पांच मिनट। काम खत्म। आरित फिर आकर बैठ गया । मालिक फिर परेशान ।
             मालिक ने नया काम शायद पहले से ही सोच रखा था। शोकेस के नीचे की सफाई ।  पर यह काम भी खत्म । तराजू की फिर से सफाई । डिब्बों को इधर से उधर, उधर से इधर, बोरों को यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ, एक बार फिर से फर्श पर झाड़ू लगाना, कपड़े से दीवार की सफाई आदि के फालतू के काम करवाकर जब मालिक के पास कोई ढंग का काम नहीं बचा तो उसने एक बेतुका काम लड़के से करवाया ।
            और उस काम का अंजाम क्या हुआ ?
           मालिक जिन कागजों पर अपने हिसाब करता था(छोटे जोड़)। उन कागजों को छोटे-छोटे टुकड़ों में फाड़ा। जिस तरह खेत में यूरिया खाद डालते हैं, वैसे ही नीचे दुकान के सामने सड़क पर बिखरा दिए(वो सब देख रहा था)। उसको बुलाया और कहा, "झाड़ू ले। इनको साफ कर और कूड़ेदान में फेंक दे।"
            आपके संस्कार, आपके शिष्टाचार, आपकी विनम्रता एक तरफ है, किंतु यदि ये एक सीमा से अधिक हो जाते हैं तो वर्तमान दुनिया इन्हें कायरता की श्रेणी में गिनती है और आपको एक कमज़ोर व्यक्ति सिद्ध कर देती है। ऐसी परिस्थितियों में हमें वही करना चाहिए जो भगवान राम ने समुद्र से रास्ता मांगते समय किया और भगवान श्रीकृष्ण ने कौरवों की सभा में किया।
            उसने सेठजी से पूछा, "साहब यह तो आप मुझे दे देते ।  मैं पहले ही कूड़ेदान में फेंक देता । आपने आगे बिखरा दिए ।  अभी इनको झाड़ू लगानी होगी। अपना समय बच सकता था। "                 सेठजी ने कहा,"जा, जितना बताया, उतना कर।"
        आरित को अजीब-सा लगा।
          उसने एकाएक पूछ लिया, "साहब मेरी तनख्वाह कितनी होगी ?"
           सेठजी ने बेरुखी से कहा, "कैसी तनख्वाह ?"
          "साहब काम के बदले में कुछ तो देंगे। महीने में" ।
           " तेरे बाप से बात हो गई ।  उसी को देंगे ।"
          " काम तो मैं कर रहा हूँ। पता तो चले इतने काम की महीनेभर में तनख्वाह क्या मिलती है  ?"
             " कुछ नहीं मिलेगी।"
             " तो मुझे काम भी नहीं करना।"
             मालिक ने ज़ोर से आवाज़ लगाकर अपने पिता से कहा, जो पास ही अंदर दुकान में थे कि ये लड़का कुछ बात करना चाहता है ।
              'अच्छा तो यहाँ एक और बड़े सेठजी हैं।'
              उन्होंने अंदर बुलाया। वहाँ जाकर आरित ने वही पूछा ।  
              मालिक के पिता इस मामले में भी मालिक के पिता ही निकले। उनका जवाब मालिक से भी बुरा था ।  पहले तो कहा तनख्वाह नहीं मिलेगी। फिर कहा हम तो फ्री में काम करवाएंगे। जब आरित ने ज़ोर देकर पूछा तो मालिक ने कहा एक हज़ार रुपये महीना देंगे । वहां तक आने जाने का किराया ही चार सौ पचास रुपये हो जाता था और दोपहर का भोजन भी अगर मिलाया जाए तो सब कुछ वही खर्च हो जाएगा।
                आरित ऐसे व्यवहार से बहुत दुखी हुआ ।
                उसे लगा कि अगर मैं योग्य हूँ तो मैं कुछ अच्छा कर लूँगा और अगर यहीं दबा-कुचला रह गया तो मैं कुछ भी नहीं कर पाऊंगा ।  ये लोग मुझे लगातार दबाते रहेंगे ।  अब उसके सामने दो रास्ते थे। एक तो चुपचाप सहन करते हुए वहीं पड़ा रहता और दूसरा कुछ अच्छा, कुछ अलग, कुछ विशेष, कुछ बड़ा करने की तरफ कदम बढ़ा देता ।  
                हम सबके जीवन में ऐसा धर्मसंकट कम-से-कम एक बार ज़रूर आता है।
                उसने दृढ़ता के साथ बड़े मालिक से कहा कि देखिए साहब या तो आप मुझे सही जवाब दीजिए या तो फिर मुझे जाना होगा ।
                बड़े मालिक ने कहा, "एक बार जाना था, वहाँ सौ बार जा। कोई रोकने वाला नहीं है। हम तो ₹1000 महीना देंगे और तेरे पापा से बात हो चुकी है। देंगे तो देंगे, नहीं देंगे तो नहीं देंगे"
                 आरित ने गंभीरतापूर्वक कहा,"ठीक है, आप संतुष्टि के योग्य उत्तर नहीं दे रहे हैं। अब मैं यहाँ नहीं रुक सकता। जाता हूँ। आखिरी राम-राम। "
                वह बस स्टॉप पर आ गया। उसके गांव जाने वाली बस 11:30 बजे आती थी । बस आ गई। बस में बैठा-बैठा सोच रहा था। हो गई नौकरी ।  हो गई घर वालों की सहायता। एक बेबस-लाचार बालक तिरस्कार सहकर, अपमानित होकर चुपचाप अपने घर की ओर जा रहा था।
                पता नहीं ऐसे कितने ही आरितों का प्रतिदिन शोषण हो रहा है । हर रोज, हर पल, हर कदम अपमान-तिरस्कार हो रहा है ।  यही बातें सोचते वह अपने घर की तरफ बढ़ रहा था ।  सूरज अपनी रोशनी को आग में परिवर्तित करने को उतावला हो रहा था। यह थी उसकी पहली नौकरी, ढाई घंटे की नौकरी।
                                                                                                                  --घनश्याम शर्मा
                  (हिंदी स्नातकोत्तर शिक्षक )
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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